भगवान जगन्नाथजी की साल भर में बारह यात्राएं होती हैं, इनमें से रथयात्रा सारे संसार में प्रसिद्ध है । इसे ‘गुंडिचा यात्रा’ या ‘घोष यात्रा’ भी कहते हैं ।
समाज में साम्य और एकता की प्रतीक है रथयात्रा
यह यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को होती है । इस दिन भगवान जगन्नाथजी, बड़े भाई बलभद्रजी और बहिन सुभद्रा की मूर्तियां तीन रथों में बैठकर गुंडिचा मन्दिर की ओर जाती हैं । उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानों तीन विशाल भव्य मन्दिर ही अपने भक्तों से मिलने के लिए निकल पड़े हों । रथयात्रा में जाति, धर्म, वर्ग व भाषा के बंधनों से मुक्त होकर सम्पूर्ण समाज आपस में एक हो जाता है क्योंकि दारुब्रह्म जगन्नाथजी समन्वय और एकता के देवता है । सभी वर्ण इनकी पूजा के अधिकारी हैं । भगवान जगन्नाथजी का रथयात्रा उत्सव अनेकता में एकता के दर्शन कराता है जिसमें सम्पूर्ण भारत एक ही तार से झंकृत होता प्रतीत होता है ।
जगन्नाथजी की रथयात्रा का नाम ‘पतितपावन महोत्सव’ क्यों हैं ?
कलियुग में भगवान जगन्नाथजी का प्राकट्य उन पतित जीवों का उद्धार करने लिए हुआ है जो उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं । उनके कल्याण के लिए प्रभु मन्दिर से बाहर निकल कर अपने दर्शन और कृपा से उनका कल्याण करते हैं । जगन्नाथ मन्दिर के प्रवेश द्वार पर भी भगवान जगन्नाथ पतितपावन के रूप में बैठे हैं जिससे कोई भी व्यक्ति मन्दिर के अंदर जाये बिना उनका दर्शन कर सकता है ।
भगवान जगन्नाथ की आंखें बहुत बड़ी हैं । वे रथयात्रा में उपस्थित सभी श्रद्धालु भक्तों पर कृपादृष्टि डालकर उनके पापों का नाश कर संसार से उद्धार कर देते हैं, इसीलिए पतितपावन कहलाते हैं ।
रथों पर विराजमान भगवान जगन्नाथजी, बलभद्रजी व सुभद्राजी के विग्रहों को छूने का भक्तों को सौभाग्य केवल रथयात्रा के दौरान ही मिलता है । रथ पर आरुढ़ भगवान जगन्नाथजी जो कलियुग में साक्षात् परमात्मा है, को स्पर्श करने से मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए रथयात्रा को ‘पतितपावन महोत्सव’ भी कहते हैं ।
दारुब्रह्म होने के कारण केवल काष्ठ से ही निर्मित होते हैं तीनों रथ
भगवान जगन्नाथजी, बलभद्रजी और सुभद्राजी के रथों का निर्माण केवल काष्ठ (लकड़ी) से होता है, किसी भी कील या धातु का प्रयोग इनके निर्माण में नहीं किया जाता है ।
जगन्नाथजी के रथ को ‘नन्दिघोष’ कहते हैं । भगवान जगन्नाथजी का एक नाम ‘पीतवास’ है इसलिए इनका रथ लाल-पीले कपड़े से सजाया जाता है । इस रथ के रक्षक गरुड़, सारथी दारुक व द्वारपाल जय-विजय हैं और ध्वजा पर हनुमानजी विराजमान रहते हैं ।
बलभद्रजी के रथ को ‘तालध्वज’ कहते हैं । बलभद्रजी का एक नाम ‘नीलाम्बर’ है इसलिए इनका रथ लाल-नीले वस्त्र से ढका रहता है । इस रथ के रक्षक स्वयं वासुदेव । रथ के शिरोभाग में अनन्त नाग और रथ की रज्जु में वासुकी विराजमान रहते हैं । बलभद्रजी के रथ पर हल की ध्वजा रहती है ।
सुभद्राजी के रथ को ‘देवदलन’ कहा जाता है । सुभद्राजी का रथ देवी का रथ होने के कारण लाल-काले वस्त्र से आवृत रहता है । इस रथ की रक्षिका जयदुर्गा हैं । स्वर्णचूड़ नामक नाग इस रथ की रज्जु बनते हैं । इसके सारथी अर्जुन हैं । ध्वजा पर त्रिपुरसुन्दरी विराजमान हैं ।
इन्हीं विशालकाय सुसज्जित रथों पर तीनों मूर्तियों को विराजमान किया जाता है जिसे ‘पहण्डि’ कहते हैं । पहण्डि के बाद पुरी के गजपति (राजा) प्रथम सेवक होने के नाते सोने की झाड़ू से प्रतीकात्मक रूप से रथों को बुहार कर चन्दन छिड़कते हैं । इन्द्रदेव भी प्राय: मेघवर्षा कर मार्ग में छिड़काव कर देते हैं।
जगन्नाथजी, बलभद्रजी और सुभद्राजी के काठ के पहियों के विशाल रथ अपार जनसमुदाय के कन्धों पर धीरे-धीरे चलते हैं । खींचने वाले रस्से पर हजार-हजार बाहें गुंथ-सी जाती हैं । बड़ी धूमधाम से रथों को सैंकड़ों लोग खींच-खींच कर गुंडिचा मन्दिर (मौसी के घर) तक ले जाते हैं । चारों ओर वातावरण में एक ही स्वरलहरी सुनाई पड़ती है–
देखौ री सखि ! आजु नैन भरि,
हरि के रथ की सोभा ।
दूसरे दिन भगवान रथ से उतरकर गुंडिचा मन्दिर में पधारते हैं । रथारुढ़ जगन्नाथजी के दर्शन कर चैतन्य महाप्रभु के मन में गोपीभाव जाग्रत हो जाता था । वे स्वयं को गोपी मानकर रथ पर बैठे जगन्नाथजी को श्रीकृष्ण समझकर नृत्य करते हुए भावविभोर हो जाते और रथ की रस्सी खींचते हुए बाह्य चेतना खोकर बेसुध हो जाते थे ।
गुंडिचा मन्दिर (ब्रह्मलोक या जनकपुर)
भगवान जगन्नाथजी रथयात्रा से लेकर वापसी यात्रा तक यानी आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि से दशमी तिथि तक गुंडिचा मन्दिर में रहते हैं । राजा इन्द्रद्युम्न की रानी गुंडिचा के नाम पर इस मन्दिर का नाम गुंडिचा मन्दिर हुआ । इसी गुंडिचा मन्दिर में विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथजी, बलभद्रजी और सुभद्राजी की दारु की प्रतिमाएं बनायीं थीं, जिन्हें राजा इन्द्रद्युम्न ने प्रतिष्ठित कराया । इसलिए गुंडिचा मन्दिर को ‘ब्रह्मलोक’ या ‘जनकपुर’ भी कहते हैं ।
जगन्नाथजी का रथयात्रा उत्सव क्यों मनाया जाता है ?
रथयात्रा उत्सव मनाने के कई कारण हैं—
स्कन्दपुराण के अनुसार भगवान ने राजा इन्द्रद्युम्न से कहा था कि उनका जन्मस्थान (गुंडिचा मन्दिर) उन्हें अत्यन्त प्रिय है । अत: वे वर्ष में एक बार वहां अवश्य जायेंगे । इसीलिए भगवान जगन्नाथजी से यात्रा के लिए निवेदन करते समय यह कहा जाता है—
‘प्रभो ! आपने पूर्वकाल में राजा इन्द्रद्युम्न को जैसी आज्ञा दी है, उसके अनुसार रथ से गुंडिचा मन्दिर के लिये विजय-यात्रा कीजिए । आपकी कृपा दृष्टि से दसों दिशाएं पवित्र हों, सभी प्राणियों का कल्याण हो । आपने यह अवतार लोगों के ऊपर दया की इच्छा से ग्रहण किया है, इसलिए आप प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वी पर चरण रखकर पधारिये ।’
रथयात्रा उत्सव मनाने का दूसरा कारण द्वापर युग से जुड़ा है । एक बार द्वारका में सुभद्राजी ने अपने भाई श्रीकृष्ण से नगर देखने की इच्छा व्यक्त की । श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने रथों के मध्य में सुभद्राजी का रथ करके उन्हें नगर दर्शन कराया । इसी प्रसंग की याद में पुरी में रथयात्रा उत्सव मनाया जाता है ।
एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जब द्वारकावासी हो गए तो एक बार सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ कुरुक्षेत्र स्थित ब्रह्मसरोवर आए । व्रजवासी भी सूर्यग्रहण के स्नान के लिए यहां आए थे । गोपियों का जब श्रीकृष्ण से मिलन हुआ तो वे उन्हें वृंदावन ले जाने के लिए व्याकुल हो उठीं । श्रीकृष्ण व्रज लौटने को तैयार नहीं हुए तो गोपियों ने उनके रथ को खींचना शुरु कर दिया । इसी के साथ रथयात्रा की शुरुआत हुई ।
स्कन्दपुराण में रथयात्रा उत्सव मनाये जाने का कारण बताते हुए कहा गया है कि भगवान जगन्नाथजी मानव-धर्म, मानव-संस्कृति और विराट विश्व-चेतना के साक्षात् मूर्तिमान रूप हैं । समस्त मानव जाति को दर्शन देने, दु:खी मनुष्यों का कल्याण करने व अज्ञानी और अविश्वासी लोगों का भगवान पर विश्वास बनाये रखने के लिए जगन्नाथजी वर्ष में एक बार अपने साथ बड़े भाई और बहिन सुभद्रा को लेकर रथयात्रा करते हैं । रथयात्रा अब पुरी से निकल कर पूरे देश में छा गयी है।
भगवान की रथयात्रा यही संदेश देती है कि यदि इस शरीर रूपी रथ पर श्रीकृष्ण को आरुढ़ कर दिया जाए तो कंस रूपी पाप-वृतियां अपने-आप समाप्त हो जाएंगी और शरीर और उसमें स्थित आत्मा स्वयं दिव्यता धारण कर लेगें।