बस्तर, छत्तीसगढ़ का एक आदिवासी बहुल क्षेत्र, अपनी अनोखी परंपराओं और संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां की जनजातियों की मान्यताएं और रिवाज इस क्षेत्र को बाकी दुनिया से अलग और विशिष्ट बनाते हैं। इन्हीं अनोखी परंपराओं में से एक है “जन अदालत,” जो कि एक लोक अदालत है और जहां किसी इंसान पर नहीं, बल्कि देवताओं पर मुकदमा चलाया जाता है। बस्तर की यह परंपरा साल में एक बार भादो जत्रा उत्सव के दौरान आयोजित की जाती है और इस दौरान देवताओं पर लगने वाले आरोपों का निपटारा किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इस अदालत में मुर्गियां, पक्षी और जानवर गवाह की भूमिका निभाते हैं।
बस्तर: लोककथाओं और अनूठी मान्यताओं की भूमि
बस्तर का क्षेत्र आदिवासी बहुल है, जहां की लगभग 70% जनसंख्या गोंड, मारिया, भाटरा, हलबा और धुरवा जैसी आदिवासी जनजातियों से है। इन जनजातियों के अपने-अपने रीति-रिवाज और परंपराएं हैं, जो सदियों पुरानी हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं। इनमें से कुछ परंपराएं इतनी अनोखी हैं कि आधुनिक समाज में उनके बारे में सुनकर हैरानी होती है। बस्तर के आदिवासी समुदाय का देवी-देवताओं के प्रति गहरा आस्था भाव है, लेकिन उनकी मान्यताओं के अनुसार, देवता केवल पूजनीय ही नहीं, बल्कि जवाबदेह भी होते हैं। यदि किसी कारणवश लोग मानते हैं कि उनके देवता उनकी प्रार्थनाओं का जवाब नहीं दे रहे हैं या उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर रहे हैं, तो वे देवताओं को भी अदालत में घसीट लेते हैं।
जन अदालत: देवताओं का न्यायालय
बस्तर के भंगारम देवी मंदिर में हर साल मानसून के दौरान भादो जत्रा उत्सव के समय जन अदालत लगती है। इस तीन दिवसीय उत्सव के दौरान भंगारम देवी मुकदमों की अध्यक्षता करती हैं, और उनके मंदिर में देवताओं पर मुकदमा चलाया जाता है। ग्रामीण इस अदालत में शिकायतकर्ता की भूमिका निभाते हैं और देवताओं के खिलाफ अपनी शिकायतें दर्ज कराते हैं। ये शिकायतें विविध हो सकती हैं, जैसे कि फसल की खराबी, किसी बीमारी का प्रकोप या किसी अन्य विपत्ति से संबंधित हो सकती हैं, जिनके लिए उनकी प्रार्थनाओं का कोई समाधान नहीं मिला।
देवताओं पर आरोप लगाने के बाद, मंदिर के पुजारी और ग्राम प्रमुख इस मुकदमे की सुनवाई करते हैं। गवाह के तौर पर जानवरों, पक्षियों और मुर्गियों को पेश किया जाता है। मान्यता है कि ये जीव देवताओं और ग्रामीणों के बीच संवाद के प्रतीक होते हैं, और उनकी उपस्थिति से मुकदमे की गंभीरता को दर्शाया जाता है।
सजा और सुधार की प्रक्रिया
देवताओं को दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा सुनाई जाती है। सजा के रूप में देवताओं की मूर्तियों को मंदिर से हटा दिया जाता है। इन मूर्तियों को पेड़ों के नीचे या अन्य स्थानों पर रखा जाता है, और तब तक मंदिर में वापस नहीं लाया जाता, जब तक देवता अपनी “गलतियों” को सुधार नहीं लेते। देवता जब तक लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं करते, उनका मंदिर में पुनः प्रवेश वर्जित होता है।
यह सजा कभी-कभी आजीवन भी हो सकती है, और देवताओं को केवल तभी वापस मंदिर में लाया जाता है, जब ग्रामीण यह मान लेते हैं कि उनकी प्रार्थनाओं का जवाब मिल गया है। यह पूरी प्रक्रिया यह दर्शाती है कि यहां के लोग अपने देवताओं को भी जवाबदेह ठहराते हैं और यह मानते हैं कि आस्था का संबंध पारस्परिक होता है। अगर देवता अपनी जिम्मेदारियों का पालन नहीं करते, तो उन्हें सजा मिलती है।
जन अदालत की संरचना
जन अदालत के दौरान मुकदमे का संचालन गांव के नेता या प्रमुख करते हैं, जो देवी के निर्देशों के अनुसार देवताओं को सजा सुनाते हैं। मुकदमे की सुनवाई के दौरान, मंदिर में एक विशेष अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें गांव के लोग एकत्रित होते हैं। गवाह के तौर पर मुर्गियों को अदालत में लाया जाता है। जब मुकदमा समाप्त होता है, तो एक मुर्गी को मंदिर के अंदर मुक्त कर दिया जाता है, जो गवाही के समापन का प्रतीक होता है। इसके बाद गांव का नेता, जो देवी के संदेशवाहक के रूप में कार्य करता है, सजा का ऐलान करता है।
देवताओं के साथ न्याय
बस्तर के आदिवासियों की यह अनोखी परंपरा यह दिखाती है कि यहां के लोग देवताओं को भी उनके कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। यह मान्यता है कि देवता लोगों की रक्षा करते हैं और उनकी समस्याओं का समाधान करते हैं, लेकिन अगर वे ऐसा करने में असफल होते हैं, तो उन्हें भी सजा भुगतनी पड़ती है। यह परंपरा न केवल देवताओं के प्रति आस्था की एक अनूठी अभिव्यक्ति है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि बस्तर के लोग अपने विश्वास को कितना गंभीर मानते हैं।
समाज और देवताओं के बीच संबंध
बस्तर की यह परंपरा एक महत्वपूर्ण संदेश देती है कि समाज और देवताओं के बीच का संबंध एक संतुलन पर आधारित होता है। अगर इस संतुलन में किसी तरह की असमानता होती है, तो यह माना जाता है कि देवता अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहे हैं और उन्हें सुधार करने की जरूरत है। बस्तर के लोग यह मानते हैं कि जब देवताओं और मनुष्यों के बीच यह पारस्परिक संबंध बना रहेगा, तभी समाज में शांति और समृद्धि आएगी।
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की यह परंपरा देश की सांस्कृतिक विविधता का एक अनोखा उदाहरण है। यह न केवल यहां के आदिवासी समाज की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि किसी भी समाज में आस्था और जिम्मेदारी का संबंध किस प्रकार जुड़ा होता है। बस्तर के लोगों के लिए यह परंपरा उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, और यह क्षेत्र की धार्मिक और सामाजिक संरचना को गहराई से समझने का एक माध्यम भी है।