
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A को संवैधानिक करार दिया है। यह धारा असम समझौते के बाद लागू की गई थी, जो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे को हल करने के लिए लाया गया था। धारा 6A उन प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करती है, जो 25 मार्च 1971 से पहले भारत में प्रवेश कर गए थे।
कोर्ट का फैसला और बहस
इस निर्णय में चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एम. एम. सुंदरेश और जस्टिस मनोज मिश्रा ने धारा 6A को वैध ठहराया। इन जजों ने माना कि यह प्रावधान असम की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था और यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) का उल्लंघन नहीं करता है। वहीं, जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने इससे असहमति जताई और इसे असंवैधानिक घोषित करने की राय दी। उनके अनुसार, समय के साथ इस प्रावधान ने असम की जनसांख्यिकी और सांस्कृतिक संरचना को खतरे में डाल दिया है और इसे अब निरस्त किया जाना चाहिए।
असम समझौते और धारा 6A की पृष्ठभूमि
1971 में बांग्लादेश की आजादी के दौरान बड़ी संख्या में लोग पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भागकर असम में आ गए थे। इससे असम में जनसांख्यिकी संकट उत्पन्न हुआ, जो राज्य की राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना पर गहरा प्रभाव डाल रहा था। इस मुद्दे को लेकर असम में छह साल लंबा आंदोलन हुआ, जिसके बाद 1985 में भारत सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के बीच असम समझौता हुआ। इसके तहत नागरिकता अधिनियम, 1955 में धारा 6A को जोड़ा गया, जो इन शरणार्थियों के लिए नागरिकता के प्रावधान तय करता था।
धारा 6A के मुख्य बिंदु:
- 1 जनवरी 1966 से पहले आए प्रवासी: ऐसे लोग भारतीय नागरिक माने जाएंगे।
- 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 के बीच आए प्रवासी: उन्हें भी नागरिकता दी जाएगी, लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार 10 साल बाद मिलेगा।
- 25 मार्च 1971 के बाद आए प्रवासी: इन्हें भारतीय नागरिकता नहीं मिलेगी और उन्हें वापस भेजा जा सकता है।
याचिकाओं के आधार और तर्क
धारा 6A को चुनौती देते हुए 2009 में असम पब्लिक वर्क्स और 2012 में असम संमिलिता महासंघ सहित कई अन्य संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर कीं। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह प्रावधान असम के नागरिकों के साथ भेदभाव करता है, क्योंकि यह केवल असम पर लागू होता है और अन्य राज्यों पर नहीं। उनके अनुसार, यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि 1971 की कट-ऑफ तारीख बिना किसी ठोस तर्क के तय की गई थी और यह अनुचित है।
याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना था कि भारी संख्या में बांग्लादेश से हुए आप्रवासन के कारण असम की जनसांख्यिकी और संस्कृति को गंभीर खतरा है। उनका कहना था कि इस आप्रवासन ने असम के मूल निवासियों को अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बना दिया है, जिससे राज्य के संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही, उन्होंने यह तर्क दिया कि सरकार इस आप्रवास के कारण देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रही है।
सरकार और प्रतिवादियों का पक्ष
केंद्र सरकार, असम सरकार, और कुछ अन्य संगठनों ने इन याचिकाओं का विरोध किया। उनका कहना था कि धारा 6A असम की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लागू की गई थी और यह संविधान के खिलाफ नहीं है। केंद्र ने तर्क दिया कि असम में बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या गंभीर है, लेकिन धारा 6A को असंवैधानिक ठहराने से इसका समाधान नहीं निकलेगा। उन्होंने यह भी कहा कि असम समझौता असम में हो रहे प्रदर्शनों को समाप्त करने के लिए एक राजनीतिक समझौता था, और धारा 6A उसी का कानूनी पहलू है।
सरकार ने यह भी कहा कि यह कानून बहुसंस्कृतिवाद और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था। इसे अवैध ठहराने से असम में सांस्कृतिक विविधता को नुकसान होगा, जो कि संविधान के विरुद्ध होगा। केंद्र का यह भी तर्क था कि संविधान के तहत केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह अलग-अलग राज्यों की विशिष्ट समस्याओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कानून बना सके।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि असम समझौता एक राजनीतिक समझौता था, जिसका उद्देश्य असम में आप्रवासन के मुद्दे को हल करना था। धारा 6A इसी मुद्दे का कानूनी समाधान था। उन्होंने यह भी कहा कि असम में आप्रवासन का प्रभाव अन्य राज्यों की तुलना में अधिक है, और इस स्थिति में असम के लिए अलग नियम बनाना असंवैधानिक नहीं है।
चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि 25 मार्च 1971 की तारीख को तर्कसंगत माना जा सकता है, क्योंकि इसी दिन बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा हुई थी। इस तारीख के आधार पर असम में नागरिकता के नियम तय करना एक तार्किक कदम था। उनका यह भी मानना था कि असम की जनसंख्या अन्य राज्यों की तुलना में कम है, इसलिए यहां आप्रवासन का प्रभाव अधिक गहरा होता है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने असम की संस्कृति और मूल निवासियों के अधिकारों की सुरक्षा को भी अहम माना। उन्होंने कहा कि असम के लोगों की सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के लिए कानून में कई प्रावधान मौजूद हैं, जो राज्य की विशिष्टता को बनाए रखने में सहायक हैं।
जस्टिस पारदीवाला की असहमति
जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने इस निर्णय से असहमति जताई। उनका मानना था कि धारा 6A को 1985 में लागू करते समय यह संवैधानिक था, लेकिन समय के साथ यह कानून असंवैधानिक हो गया है। उन्होंने कहा कि इस प्रावधान के कारण असम में आप्रवासन की समस्या बढ़ गई है और यह कानून अब मनमाना हो चुका है। उन्होंने यह भी कहा कि इस कानून में घुसपैठियों की पहचान और उन्हें निष्कासित करने की कोई निश्चित समय सीमा तय नहीं की गई है, जिससे यह समस्या और गंभीर हो गई है।
कोर्ट के निर्देश और भविष्य की दिशा
चार जजों की बहुमत वाली पीठ ने अपने फैसले में केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि वह घुसपैठियों की पहचान और निष्कासन की प्रक्रिया को तेज करे। उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए। इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि विदेशी ट्रिब्यूनल की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि नागरिकता और घुसपैठ के मामलों का समय पर निपटारा हो सके।
पीठ ने मुख्य न्यायाधीश से भी निवेदन किया कि वह इस मामले की निगरानी के लिए एक नई पीठ का गठन करें, जो इस मुद्दे पर निगरानी रखे और इसे सही दिशा में आगे बढ़ाए।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय असम के नागरिकता विवाद और वहां के जनसांख्यिकीय संकट को हल करने के लिए महत्वपूर्ण है। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि असम की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए कानूनों को असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि, यह देखना बाकी है कि आगे आने वाले समय में असम में नागरिकता और आप्रवासन से जुड़ी समस्याओं का समाधान कैसे होता है और सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है।