मोर बिहाव
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टूरी चक्कर म धोखा खांय त
मुड़धर के पछताएं,
पढ़ाई लिखाई ल छोड़ के तहां
किराना दुकान चलाएं।
हर घड़ी वो टूरी के सूरता
जिवरा मोर जलाएं,
तभे मैं जल्दी बिहाव करे ब
बाबू ल मनाएं।
भैया बाबू के संग म वो दिन
टूरी देखें बर गेन,
एक गाव म जा के हमन
रात्रे घर पुछेन।
घर में जा के बैठेन तहां त
पानी टूरी ह दिस,
ओकर ददा भियां भड़ा संग
पढ़ाई लिखाई पुछीस।
मन परसन होईस त होमन
मोर घर घुमे आईस,
एक आदमी बाबू ल मोर
अपन संगी पाईस।
टूरी के ददा मोर नाम संग
कुण्डली ल मिलाईस,
हो गे रिश्ता पक्का कहिके
भरोसा ल धराईस।
जल्दी नवा मोबाइल ले के
मैं मंगेतर ल दें,
थोरकिन दिन म पैरीं चूरी
नावां साड़ी अऊ लें।
लगन तिथि के संग मा जल्दी
मड़वा तहां गड़ीस,
मोर जिनगी के जम्मो दुःख ह
संगे संग म टरीस।
बेंड बाजा संग गांव भर
गीन मोर बरात,
धुर्रा ऊड़त ल नाचिस सब्बो
खाईन कुकरी भात।
सात भांवर ले के दोनों झिन
बनेन पति पत्नी,
बाईं के नाक म चमकत रहै
सोन के ओकर नथ्नी।
सुहागरात म बाई ह मोर
नखरा बड़ दिखाईस,
जगा जागा के रात रात भर
अपन नी बनाईस।
चक्कर वाली टूरी के संग म
पढ़े रहिस मोर बाई,
तिकरे सेतिर रिसाय रहे जी
सच जान के भाई !
लेखक/ कवि,
विजय कुमार कोसले
नाचनपाली, लेन्ध्रा छोटे
सारंगढ़, छत्तीसगढ़ ।