दाई-ददा
दाई ददा भगवान ए साक्षत
लाखों जेकर सबूत हे,
उखरे दम ले आज हमर
जिनगी के वजूद हे।
नौ महीना दाई कोख में राखे
कतको कन दुःख पाय हे,
रंग रंग के फिर जतन रतन म
जिनगी वोहा बिताए हे।
एक बछर ल कोरा म पा के
गोरस दाई पीयाय हे,
ददा घलो रोज हाथ ल धरके
चलना हमला सिखाय हे।
आनी बानी के खेल खिलौना
नानेपन म बिसाय हे,
नींद नी आय म गा के लोरी
दाई हमला सुनाय हे।
पढ़ा लिखा के दाई ददा ह
काबिल हमला बनाय हे,
हमरे खातिर जीयत मरत ल
दुख पा पाके कमाय हे।
बिहाव हमर कर दाई ददा ह
जिनगी हमर बसाय हे,
नाति नतनीन सबला पा के
कतको ओमन खेलाय हे।
दाई ददा जे बेटा के संग हे
सुखी ओकर संसार हे,
दाई ददा के गूजर जाय म
चिंतित हर परिवार हे।
दाई ददा के करज चूकाना
बस नईए संतान के,
जीयत भर दाई ददा के सेवा
हे पूजा भगवान के।
लेखक/ कवि,
विजय कुमार कोसले
नाचनपाली, लेन्ध्रा छोटे
सारंगढ़, छत्तीसगढ़ ।