एक गहरी विचार को अभिव्यक्त कर सरलता सहजता और मानवता की बहुत ही सुंदर झलक दिखाती एक बेहतरीन रचना जो साहित्य में सदैव ही अमर रहेंगे। जरूर पढ़िए कवि विजय कुमार कोसले की कविता शीर्षक “चाह नहीं है”।
!! चाह नहीं है !!
चाह नहीं है अरमां मेरे
राजा भोज कहाऊं,
मन में ढेरों स्वार्थ छिपाकर
सबको गले लगाऊं।
चाह नहीं है सपने मेरे
लाखों रुपए कमाऊं,
बेइमानी की कमाई करके
बंगला कोठी बनाऊं।
चाह नहीं है दिल को मेरे
सदा हुकूम फ़रमाऊं,
बैठे-बैठे बिना मेहनत के
हराम की नित खाऊं।
चाह नहीं है मन को मेरे
धन पा के इतराऊं,
आते जाते किसी निर्धन की
दिल को कभी दुखाऊं।
चाह नहीं है बुरी-संगत में
मैं कभी फंस जाऊं,
शराब जुए में लीन होकर के
अपनों को सदा रूलाऊं।
हे ईश्वर है चाहत मेरी
नेक इंसान कहाऊं,
नीच कर्म कर चरित्र में न
दाग कोई लगाऊं।
लेखक/कवि,
विजय कुमार कोसले
नाचनपाली, सारंगढ़
छत्तीसगढ़ ।
मो न -6267875476