न्यूजलाइन नेटवर्क , स्टेट ब्यूरो
टिप्पणी /लेखक : दीपेन्द्र शुक्ल
छत्तीसगढ़ डेस्क : प्रधानमंत्री जी की घोषणा कितना स्पष्ट है। एक तरह से यह कहना आसान है, लेकिन क्या धरातल में यह संभव है? पत्रकार जो लिखता और दिखाता है क्या उसको सरकारें देख पाएंगी? उससे भी बड़ा सवाल है कि देखने के बाद सरकार के नुमाइंदे उन खबरों को उन जमीनी हकीकत को शांत रह कर सह पाएंगे?
जमीनी हकीकत पर बात करें तब मिलता है कि एक तरफ कॉरपोरेट घरानों का मीडिया मैनेजमेंट और मीडिया संस्थानों को क्रय करने में बढ़ता प्रचलन, अखबार और टीवी में छपने और दिखने वाले तमाम बड़े पत्रकारों का पत्रकार कम निर्धारित सीटीसी में काम करने वाला एक कंपनी कर्मचारी और कॉरपोरेट घरानों के हिसाब से काम करने वाला हो जाना और उसके तौर तरीके से खबर लिखना, दिखाना, उसके हिसाब की खबर लिखना उस कंपनी के हित और नुकसान को ध्यान में रखकर खबर लिखना और दिखाना इन सब व्यवस्थाओं के बीच वह पत्रकार पत्रकारिता को छोड़ कंपनी का पीआरओ हो गया है। दूसरी तरफ सरकारी व्यवस्था के आगे जब मीडिया को गोदी मीडिया कहा जा रहा है और पत्रकारों को पत्तालकर कहा जा रहा है और स्पष्ट दिखाई भी देता है कि बड़े बड़े कथित अखबार और टीवी पत्रकार सरकार के गुणगान और वंदन आरती करते नहीं थक रहे। वहीं तीसरी ओर देखेंगे तो पाएंगे कि उपरोक्त दोनों के विपरित जमीनी हकीकत यह है कि देश में 80 फीसदी पत्रकार आज भी बिना सैलरी, बिना वेतन बिना मेहनताना लिए, स्ट्रिंगर और एजेंट के रूप में देशभर में निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं। ये सब भारत जैसे महान देश के तमाम जिलों में हैं। यहां ऐसे भी पत्रकार हैं जो आज भी किसी अखबार या चैनल को खबर भेजते तो हैं, लेकिन उसका उनको मेहनताना कभी नहीं मिलता। मिलती है तो अखबार की कॉपी और चैनल के विज्ञापन बढ़ाने का टारगेट और गाली, उलाहना, धमकी और दलाल होने की उपाधि। ऐसे पत्रकारों का घर बड़ी चुनौती से चलती है, ये पत्रकार अपनी रोटी की व्यवस्था पेपर के बिल और विज्ञापन के कमीशन से चलाते हैं और इसमें भी अधिकतर बार कई नेता जी जो कथित तौर पर बड़े विधायक, सांसद, संसदीय सचिव और मंत्री के पद पर शोभायमान होते हैं अपना विज्ञापन छपवाकर पूरे कार्यकाल क्या कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद भी बिल का भुगतान नहीं करते। ऐसे में पत्रकार साथी को उस बिल का भुगतान संबंधित अखबार या चैनल को अपने घर से या कमीशन के रूप में अन्य विज्ञापनों से मिलने वाले मेहनताना को जमा कर देना होता है।
यही पत्रकार जब किसी मंत्री, सांसद, विधायक, महापौर, अध्यक्ष, कलेक्टर, सीईओ या अन्य विभागीय अधिकारी और कर्मचारी के काम और उसके काम करने के वास्तविक तौर तरीके पर समीक्षा कर कोई टिप्पणी और सही दिशा सही समस्या को उठाते हुए चार लाइन की खबर लिख दें या दो मिनट का समाचार दिखा देते हैं तो फिर आफत ही बरस पड़ती है। दो लाइन की खबरों की हेडिंग तक नहीं सह पाने वाले सत्ता के साथ चलने का कभी आरोप तो कभी साथ चलने की नसीहत देने लगते हैं, कभी विपक्ष के रूप में मीडिया और पत्रकार को भूमिका निभाने की बात कहते हैं। लेकिन जब उनको लगता है कि उनके खिलाफ खबर छप गई है तब वे ही मुसीबत खड़ी करने लगते हैं। जब वही पत्रकार वही कलमकार किसी विभाग के कामों की डेटा एनालिसिस करके दो शब्द लिख देता है तो उसे उसकी खबरों पर धमकाया जाता है और सरकारें मौन हो जाती हैं, अधिकारी यह कहते हैं कि खबर का खण्डन छाप कर माफी मांगे। इतना ही नहीं संबंधित अखबार और चैनल के स्टेट हेड या नेशनल हेड से सीधे बात कर विज्ञापन का बिल रोक देने का ऑफिशियल दबाव बनाते हैं।
यह कहने वालों की संख्या आज बढ़ जरूर गई है कि क्या कोई भी पद किसी की बपौती होती है? गया जमाना कि राजा का बेटा राजा होगा! लेकिन हकीकत यही है की आज सभी पद और कुर्सी बपौती हो गई है, चपरासी से मुख्य सचिव तक आरक्षक से डीजीपी तक पार्षद से प्रधानमंत्री तक कोई भी पद हो सब कुछ कहीं न कहीं किसी अंधेरी कोठरी में छुपा हुआ कोई बाप है जो तय करता है कि किसे कौन सी कुर्सी देनी है। यही कारण है कि जब चार लाइन की खबर सरकारी व्यवस्था पर जन सरोकार के सवाल खड़े करने के लिए पत्रकार लिखकर उजाला करता है तब उस अंधेरी गुफा में छुपे हुए व्यवस्था को अपने हिसाब से चलाने वाले बाप को बुरा लग जाता है। फिर वह ऐसी प्रकाश फैलाने और जनता को जागरूक करने और लिखने वाले पत्रकार पर व्यवस्था से अलग करने का षड्यंत्र करता है और अगर यह नहीं कर सकता तो मारने और सर तन से जुदा कर देने का फतवा जारी करवाता है। यहां तक कि फोटो वायरल कर गुंडे घर भेज देते हैं।
ऐसे घातक दौर में प्रधानमंत्री जी का इस तरह की घोषणा किया जाना निश्चित ही पत्रकारों के लिए बहुत खुश होने वाला होगा, लेकिन जमीनी हकीकत पर यह संभव नहीं है। न इसे सांचे में उतारा जा सकता है। भले ही यह मदद के रूप में यह हाथ सामने दिख रहा है कि हाथ ऊपर है, लेकिन यह कोरी राजनीतिक स्टंट और भंवर में फंसा हुआ एक मृग मरीचिका से ज्यादा कुछ और नहीं है। साहब मजीठिया और तमाम वेजबोर्ड देखकर बैठे हुए लोग यहां मौजूद हैं जो मीडिया की रक्षा के लिए बनाए गए बड़े बड़े कानून की जमीनी हकीकत पर ग्राउंड रिपोर्ट करके बैठे हुए हैं। ऐसी कानून व्यवस्था कभी आ ही नहीं सकती जिससे वास्तव में पत्रकार को फायदा पहुंचे। क्योंकि असली पत्रकार को कभी कोई फायदा पहुंचाने वाला है ही नहीं।
क्योंकि वास्तविक पत्रकार उस साइकल की तरह होता है जो अपने जीवन में सिर्फ स्टैंड चुन सकता है। अगर पत्रकार अपने कैरियर की चिंता स्टैंड के साथ कर रहा है तो स्टैंड एक तरफा होगा। पत्रकार की साइकल में एक साथ स्टैंड और कैरियर नहीं हो सकती। पत्रकारिता में कैरियर हो न हो स्टैंड होना बहुत जरूरी होता है वह स्टैंड भी एक तरफा नहीं बल्कि फूल स्टैंड का होना चाहिए। करियर का मामला असल में पत्रकारों के भीड़ का हिस्सा मात्र हैं। उन तमाम पत्रकारों की सुरक्षा और इसपर कानून की मांग तो पिछले कई दशकों से होती रही हैं अब प्रधान मंत्री जी की घोषणा के बाद माना जा सकता है कि उन्हें जरूर ही पत्रकार की चिंता हुई होगी। जब ऐसा 24 घंटे में हो जाए तब ही वास्तव में चिंता और उसपर पहल किया जाना माना जाएगा।