सुप्रीम कोर्ट ने बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री (Child Pornography) पर एक अहम फैसला सुनाया है। इस फैसले में शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि बच्चों की अश्लील फिल्में देखना और उन्हें डाउनलोड करना दोनों ही कृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह अपराध पोक्सो (POCSO) एक्ट और सूचना प्रौद्योगिकी (IT) कानून के तहत माना जाएगा, और इसके तहत कठोर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।
मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलटा गया
इससे पहले मद्रास हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि बच्चों की अश्लील सामग्री को देखना और डाउनलोड करना पोक्सो एक्ट और सूचना प्रौद्योगिकी कानून के अंतर्गत अपराध नहीं है। हाईकोर्ट का यह निर्णय व्यापक रूप से आलोचनाओं का शिकार हुआ था, क्योंकि यह बच्चों के यौन शोषण से जुड़े कानूनों के विपरीत था।
सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल थे, ने इस फैसले को पलटते हुए कहा कि बच्चों की अश्लील फिल्में देखना और उन्हें डाउनलोड करना एक गंभीर अपराध है, जिसे पोक्सो और आईटी एक्ट के अंतर्गत सजा दी जा सकती है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस तरह की सामग्री का उपभोग करने वालों को कानून के तहत सख्त सजा मिलनी चाहिए।
POCSO एक्ट में संशोधन की सलाह
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में केंद्र सरकार को पोक्सो एक्ट में बदलाव की सलाह दी है। कोर्ट ने कहा कि “चाइल्ड पोरनोग्राफी” शब्द का इस्तेमाल करने के बजाय “CSAEM” (Child Sexually Abusive and Exploitative Material) का उपयोग किया जाना चाहिए। यह बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि कानून में बच्चों से संबंधित यौन शोषण और उनकी सुरक्षा के लिए स्पष्टता आ सके और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
CSAEM (Child Sexually Abusive and Exploitative Material) शब्दावली का इस्तेमाल बच्चों के यौन शोषण से संबंधित सामग्री को संदर्भित करने के लिए अधिक सटीक और व्यापक परिभाषा प्रदान करेगा। इससे यह सुनिश्चित होगा कि बच्चों से जुड़ी सभी प्रकार की यौन शोषण सामग्री को कानून के दायरे में लाया जा सके।
कानूनी परिणामों के लिए दिशानिर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बच्चों की अश्लील सामग्री और इसके कानूनी परिणामों के बारे में कुछ दिशानिर्देश भी जारी किए। पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया था कि बच्चों की अश्लील फिल्में देखना और डाउनलोड करना पोक्सो एक्ट और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत अपराध नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस तरह की सामग्री न केवल बच्चों के यौन शोषण को बढ़ावा देती है, बल्कि समाज के नैतिक ढांचे को भी कमजोर करती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह के अपराधों के खिलाफ कानून को और सख्त बनाने की आवश्यकता है, ताकि बच्चों को ऐसी सामग्री से बचाया जा सके और अपराधियों को सजा दी जा सके।
मद्रास हाईकोर्ट का पुराना फैसला
मद्रास हाईकोर्ट ने 11 जनवरी को एक मामले में 28 वर्षीय एक व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया था। उस व्यक्ति पर अपने मोबाइल फोन पर बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री डाउनलोड करने का आरोप था। हाईकोर्ट ने कहा था कि बच्चों के पोर्न देखने की समस्या गंभीर है, लेकिन इसके लिए सजा देने के बजाय समाज को परिपक्व होकर उन्हें शिक्षित करने की कोशिश करनी चाहिए। अदालत का मानना था कि बच्चों को इस समस्या से उबरने के लिए शिक्षा और मार्गदर्शन की आवश्यकता है, न कि कठोर दंड की।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका और सुनवाई
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दो संगठनों ने याचिका दायर की थी। ये संगठन बच्चों के अधिकारों और कल्याण के लिए काम कर रहे थे। वरिष्ठ अधिवक्ता एच. एस. फुल्का ने फरीदाबाद स्थित एनजीओ “जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस” और नई दिल्ली स्थित “बचपन बचाओ आंदोलन” की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दलीलें पेश कीं।
उन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले को कानून के विपरीत बताया और कहा कि यह फैसला बच्चों के यौन शोषण से जुड़ी कानूनी व्यवस्थाओं के खिलाफ जाता है। उनके अनुसार, हाईकोर्ट का फैसला बच्चों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों को कमजोर करता है और समाज में बच्चों के प्रति अपराध को बढ़ावा दे सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को ध्यान में रखते हुए मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया और स्पष्ट किया कि बच्चों की अश्लील सामग्री देखना और डाउनलोड करना एक गंभीर अपराध है, और इसे पोक्सो एक्ट और आईटी एक्ट के तहत सजा योग्य माना जाएगा।