सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक जनहित याचिका पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें जेलों में जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने की मांग की गई थी। इस याचिका में कहा गया था कि भारतीय जेलों में कैदियों को उनके जातिगत आधार पर अलग-अलग प्रकार के कार्य सौंपे जाते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 15 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि जेल मैनुअल में जातिगत आधार पर काम का विभाजन न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह सामाजिक असमानता को और बढ़ावा देता है।
जेल मैनुअल में भेदभाव का मुद्दा
अदालत ने पाया कि जेल मैनुअल के अनुसार, निचली जातियों के कैदियों को सफाई और झाड़ू लगाने जैसे कार्य दिए जाते हैं, जबकि ऊंची जातियों के कैदियों को खाना पकाने जैसे अधिक सम्मानजनक काम सौंपे जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुचित करार देते हुए कहा कि इस तरह का काम का बंटवारा सीधे तौर पर जातिगत भेदभाव का संकेत देता है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत निषिद्ध है। अनुच्छेद 15 के अनुसार, जाति, धर्म, लिंग, नस्ल या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
असमान श्रम विभाजन
अदालत ने यह भी कहा कि जेलों में इस तरह की प्रथाएं श्रम का अनुचित और असमान विभाजन पैदा करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाति के आधार पर काम का आवंटन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, और इस प्रकार की प्रथाएं कैदियों के साथ अन्याय करती हैं। इस निर्णय में स्पष्ट किया गया कि सभी कैदियों को समान रूप से देखा जाना चाहिए और काम का बंटवारा उनकी जाति की बजाय उनके व्यक्तिगत कौशल और शारीरिक क्षमता के आधार पर किया जाना चाहिए।
जेल रजिस्टर से जाति कॉलम हटाने का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए अपने फैसले में निर्देश दिया कि सभी जेलों के रजिस्टर से “जाति” का कॉलम हटा दिया जाए। यह कदम इसलिए जरूरी माना गया ताकि जेल प्रशासन द्वारा कैदियों के बीच जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जा सके।
तीन महीने में संशोधन का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने मॉडल जेल मैनुअल-2016 और मॉडल जेल एवं सुधार सेवा अधिनियम-2023 में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए तीन महीने के भीतर आवश्यक संशोधन करने का आदेश दिया। इन संशोधनों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जेल मैनुअल और अन्य प्रावधानों में कहीं भी जाति के आधार पर कैदियों को भिन्न कार्य दिए जाने की अनुमति न हो। यह निर्देश न केवल जेल प्रशासन के लिए बल्कि पूरे देश के कारागार व्यवस्था में सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को यह आदेश दिया कि वह तीन सप्ताह के भीतर इस फैसले की प्रति सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजे, ताकि इस फैसले का तुरंत अनुपालन हो सके। इसके साथ ही, अदालत ने जेलों में जातिगत भेदभाव पर निगरानी रखने के लिए जिला विधिक सेवा प्राधिकरण और जेल विजिटर्स बोर्ड को संयुक्त रूप से जेलों का नियमित निरीक्षण करने का आदेश दिया। यह निरीक्षण इस बात को सुनिश्चित करेगा कि जातिगत भेदभाव के खिलाफ लिए गए फैसले का सही ढंग से पालन हो रहा है या नहीं।
जनहित याचिका की पृष्ठभूमि
यह जनहित याचिका पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने जेलों में कैदियों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाए थे। याचिका में बताया गया था कि जेलों में कैदियों को उनकी जाति के आधार पर अलग-अलग काम सौंपे जा रहे हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव निषिद्ध), अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और अनुच्छेद 23 (श्रम का शोषण निषिद्ध) का उल्लंघन करता है। याचिका में जेल मैनुअल के कई प्रावधानों को इन संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ बताया गया और सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में निर्देश जारी करने की मांग की गई।
अदालत का निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया और पाया कि भारतीय जेलों में जातिगत आधार पर काम का विभाजन गंभीर रूप से असंवैधानिक है। अदालत ने कहा कि जाति के आधार पर कोई भी भेदभाव न केवल भारतीय समाज में व्याप्त असमानता को बढ़ाता है, बल्कि कैदियों के मानवाधिकारों का भी हनन करता है। अदालत ने इस तरह की प्रथाओं को समाप्त करने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत पर जोर दिया और सभी संबंधित अधिकारियों को इस मामले में आवश्यक कार्रवाई करने के निर्देश दिए।