बाबा साहेब के आखिरी वाक्य और उसका गलत उद्धरण!!

“संघर्ष करो”

दिनांक 18- 19 जुलाई 1942 को नागपुर में All India Conference of the Depressed Classes की सभा में डॉ भीम राव आम्बेडकर के अंतिम वाक्य थे –

“My final words of advice to you are

Educate, Agitate and Organise;

have Faith in Yourself.”

इसमें Struggle शब्द नहीं थे।

यह बाबा साहब का सबसे ज्यादा गलत ढंग से उद्धृत (Most misquoted) किया जाने वाला नारा है| अब अक्सर लोग इसे Educate, Organise and Struggle लिखते, बोलते एवं उद्धृत करते हैं| इस नारा में एक नया शब्द – Struggle है और शब्दों की क्रमबद्धता (sequence) भी बदल दी गयी है|

तो प्रश्न यह उठता है कि क्या बाबा साहेब को Agitate और Struggle शब्द के अर्थ और भाव का पता नहीं था? , या आज के तथाकथित बुद्धिजीवी आन्दोलन करने वाले लोगों को यह समझ नहीं है।

पहले हम बाबा साहब के सही नारा का अर्थ हिन्दी भावार्थ के साथ समझते हैं | यदि “Educate, Agitate and Organise” का हिन्दी भावार्थ किया जाय, तो मेरे अनुसार “शिक्षित करो, मंथन (या मनन) करो, संगठित करो” होता है। नादान लोगों ने एक महान विचारक के एक शब्द बदल कर उनके सम्पूर्ण भावार्थ ही बदल दिया और इसकी क्रमबद्धता (Sequence) भी बिगाड़ दिया| वे Agitate को समझ नहीं पाए और इसलिए इसे हटा दिया| इसके बदले वे लोग एक नया शब्द लाये, जो उन लोगो को अच्छा लगता था और उनक समझ के स्वभाविक स्तर में आता था| शब्दों का अर्थ उनके संदर्भ में होता है और प्रत्येक शब्द का अपना एक सुनिश्चित संरचना होता है। यही ‘भाषा का संरचनावद’ (Structuralism of Language) भी कहता है।

दरअसल ‘Struggle’ (संघर्ष) शब्द से शारीरिक उद्वेलन, शारीरिक हलचल तथा शारीरिक उठा-पटक और शारीरिक हिंसा की गंध आती है। (द्वंदात्मक भौतिकवाद)। यह एक नकारात्मक शब्द है, जबकि मनन करना, मंथन करना एक सकारात्मक शब्द है। संघर्ष करना किसी के विरुद्ध होता है और मनन मंथन करना किसी का भी हो सकता है, लेकिन विरोध का भाव नहीं आता।

साधारणतया या अक्सर लोग अपने व्यक्तित्व के अनुसार ही दूसरों के व्यक्तित्व को समझते हैं। साधारण लोग डा अम्बेडकर के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझ ही नहीं पाते है। ये लोग उनके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और वैज्ञानिक पहलु को कल्पना में भी देख नहीं पाते और अपने स्वभाव के अनुसार सिर्फ राजनीतिक पहलू तक सीमित रह जातें हैं। डाक्टर बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा ‘Agitate’ (मंथन, चिन्तन-मनन) शब्द विशुद्ध रूप से आत्मिक उन्नति के संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है। …. और यह आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रमुख लक्ष्यों जैसे- वास्तविक ज्ञान, परम संतोष, समस्त भयों से मुक्ति, स्थित-प्रज्ञता, समस्त सांसारिक दुखों से आत्यांतिक मुक्ति तथा अंततः निर्वाण की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले उन कठिन मानसिक/ बौद्धिक पराक्रमों एवं पुरुषार्थों को इंगित करता है, जो मनुष्य अपने मन: क्षेत्र (Psychic Field) में सतत् सक्रिय रहकर इसे बुद्ध के अष्टांग मार्ग के संदर्भ में समझा जाय।

कोई शब्द अपने आप किसी अर्थ को जन्म नहीं देते, बल्कि वे एक मृत यांत्रिक ध्वनि संकेत मात्र हैं। वस्तुत: मनुष्य की ‘समझ’ (Power of Perception) ही किसी शब्द विशेष को कोई अर्थ प्रदान करती है। ..और यहां समझने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मानव की यह ‘Perceptional Power’ पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार बदलती रहती है।….. और इसी लिए भाषाविज्ञानी कहते हैं कि हमारी भाषा-बोली के तमाम सारे शब्द पीढ़ी दर पीढ़ी अपना अर्थ बदलते जाते हैं या फिर मृत होकर हमारे शब्दकोश से ही गायब हो जाते हैं।

दूसरी बात यह कि किसी शब्द के पर्यायवाची शब्दों के अर्थ कभी भी पूर्णतः समान नहीं होते, बल्कि उनमें संदर्भ भेद के अनुसार थोड़ी-बहुत भिन्नता अवश्य रहता है। वैसे ही किसी शब्दकोष (डिक्शनरी) में किसी शब्द के जो अनेक अर्थ दिये हुए होते हैं, वे सर्वथा समान अर्थ नहीं रखते, और न ही उस शब्द के सभी पर्यायवाची शब्द स्थान की सीमा की वजह से अंकित हो पाते हैं। अतः मेरा निवेदन है कि ‘Agitation’ का एक अर्थ भारतीय अध्यात्मिक परंपरा के संदर्भ में समझने का प्रयास किया जाय, न कि उसका अर्थ केवल आधुनिक लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों के जिन्दाबाद-मुर्दाबाद या साम्यवादी पृष्ठभूमि के शोषक- शोषित या मालिक- मजदूर के संदर्भ में ही समझा जाय।

लेकिन लोग बाबा साहेब के राजनीतिक कैरियर से कंफ्यूज होकर इस शब्द का अर्थ साम्यवादी/ समाजवादी विचारधारा के संदर्भ में निकालने लगते हैं। बस सारी गड़बड़ी की जड़ यही है। और परिणाम यह होता है कि हम ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में उपरोक्त शब्द के वास्तविक संदर्भ को ही बदल बैठते हैं।

वर्तमान क्रांतिकारी शूरवीर यह नहीं समझना चाहते हैं कि एक महान विद्वान एवं विचारक ने ये शब्द क्यों दिए और उनकी क्रमबद्धता के विशिष्ट अर्थ क्या थे? वे कम से कम डॉ आम्बेडकर के नाम पर तो ठहर जाते| कम से कम उन्हें (बाबा साहब को) को तो हम अपनों से बड़ा जानकार मान लेते, तो शायद यह गलती नहीं करते| यह संशोधन किसी दुसरे के कहने पर किया गया या नासमझी में किया गया, मुझे पता नहीं| इसमें परिवर्तन साजिश के अंतर्गत मानना गलत नहीं होगा| इस परिवर्तन का कितना बड़ा अंतर पड़ता है, शायद उनको इसका अंदाजा ही नहीं है| एक झटके में उस महान विचारक के शोधित (Refined) और गंभीर नारा को बरबाद कर दिया गया और मानवता का बहुत बड़ा अहित कर दिया|

पहले तो यह जाना जाय कि इस नारा के संकेत (Clue) या सूत्र बाबा साहब ने कहाँ से लाया? बाबा साहब मानवता के महान वैज्ञानिक तथागत बुद्ध के अनुयायी थे| इन्होंने उनके दर्शन एवं सिद्धांत का सम्यक अध्ययन किया और एक पुस्तक भी लिखी – “बुद्ध एवं उनका धम्म”| बुद्ध विश्व के महान विचारक एवं वैज्ञानिक थे| उनके दर्शन का मूल सिद्धांत था –

बुद्धम शरणम गच्छामि|

धम्म शरणम गच्छामि||

संघम शरणम गच्छामि||

इनके क्रम पर भी ध्यान दिया जाय|

“बुद्धम शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – बुद्धि के शरण में जाता हूँ| बुद्ध एक संस्था थे। और बुद्ध बुद्धि का एक उपाधि भी था| गोतम (बुद्ध इस परम्परा में 28 वे बुद्ध थे) एक व्यक्ति भी थे, परन्तु बुद्ध भारत में बुद्धिवादियों की एक परम्परा के क्रम में एक नाम भी है| बुद्धि अवलोकन एवं अध्ययन (शिक्षा) से आता है| अत: बुद्ध (यानि बुद्धि) के शरण में जाता हूँ|

“धम्म शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – किसी भी चीज के अवलोकन एवं अध्ययन (शिक्षण) के उपरान्त उसमे जो धारण करने योग्य है, उसे धारण करता हूँ| धम्म क्या है? धारेति ति धम्मो| जो धारण करने योग्य है, वह धम्म है| अर्थात जो मानवता के कल्याण में मानवीय गुण है, वह धारण करने योग्य है| अर्थात अवलोकन एवं अध्ययन के उपरान्त जो मानव कल्याणार्थ है, उसे धारित करता हूँ|

इसी तरह “संघम शरणम गच्छामि” का अर्थ हुआ – आपने जो अवलोकन एवं अध्ययन के उपरान्त जो धारण किया, उस पर आवश्यकता अनुसार सम्यक निष्कर्ष के लिए संघ के शरण में जाता हूँ, या उन धारित तथ्यों एवं बातों को संगठित करता हूं| किसी भी अध्ययन का सही निष्कर्ष तभी पा सकते हैं, जब आप उसे विद्वानों की मंडली में विमर्श के लिए उपस्थापित करते हैं | विद्वानों से विमर्श संघ, संगठन में ही हो सकता है और इसीलिए संघ के शरण में जाता हूँ। ताकि अध्ययन का सही, सम्यक एवं मानवता के अनुरूप अर्थ पाया जा सके| शब्द Organise का एक अर्थ संगठित करना और व्यवस्थित (Systematic) करना भी है। अर्थात सीखे गए और मनन मंथन किए गए विचारों को आवश्यकता अनुसार व्यवस्थित करना भी है। इस पर ध्यान दिया जाए।

बाबा साहेब ने ज्ञान के इसी सिद्धांत को आज की परिस्थितियों के अनुरूप एक क्रम में रखा – अध्ययन करो अर्थात शिक्षित बनों यानि शिक्षा पाओ (शिक्षित करों या बनो); उस अध्ययन यानि शिक्षा का मनन- मंथन करो, ताकि उसमे धारण करने योग्य बनाया जा सके (मंथन करो); धारण किये गए विषय वस्तु पर सम्यक विमर्श के लिए संगठित हो, ताकि सही, सम्यक एवं उचित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके (संगठित हो)| संगठित करने का एक अर्थ यह भी है कि अध्ययन किए गए और मनन मंथन के उपरान्त निकाले गए निष्कर्ष को अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यवस्थित करना यानि संगठित करना भी है।

हमलोग उस महान विचारक का भाव एवं अर्थ समझे बिना उसमे संशोधन कर देते हैं, जो उस महान विचार के प्रति समुचित व्यवहार नहीं है| Agitate शब्द का सही अर्थ संदर्भवश मनन मंथन करना होता है ; नहीं कि संघर्ष करना| दही को मथ (मंथन) कर घी निकालने वाला यंत्र Agitator (घोटना) कहलाता है, जो किसी भी ग्रामीण घर में होता है| इसे दाल घोंटना भी कहते हैं। अत: Agitate शब्द को तथा उसके अर्थ को अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए, उसे सही संदर्भ में समझा जाना चाहिये|

बाबा साहब ने “संघर्ष करो” क्यों नहीं कहा? शब्दों का अर्थ, भाव, कल्पना और प्रभाव का बहुत अन्तर पड़ता है। हम जो शब्द बोलते हैं, बोलते ही उस शब्द की कल्पना में छायाचित्र बन जाता है| यह विज्ञान में स्थापित हो चुका है, कि जो शब्द हम कल्पना में लाते हैं, वे अपने से सम्बन्धित और विचारों को जोड़ते हैं, उसे समृद्ध करते है और उस पर हमारा केन्द्रण (Concentration) बढ़ जाता है, उसमें ऊर्जा का प्रवाह बढ़ जाता है| जिन शब्दों पर हमारा संकेंद्रण बढ़ता है और जो शब्द कल्पना में होते हैं, वहीं जीवन में भौतिक स्वरूप में बदल जाते हैं। ऐसे लोगों का जीवन सदैव संघर्षशील होता है और उन्हें शायद ही कोई सफलता मिलती हो। संघर्ष शब्द से हमारी सकारात्मकता एवं रचनात्मकता घटने लगती है| हम गलत दिशा में उलझने लगते हैं, भटकने लगते हैं। भारत के लोगों में सकारात्मकता एवं रचनात्मकता बढ़ाने के लिए ही बाबा साहेब ने “संघर्ष करो” नहीं कहा।

शब्दों के अर्थ क्या होते हैं और कितने महत्वपूर्ण होते है, यह समझने के लिए एक सही प्रसंग उद्धृत कर रहा हूँ| नोबल पुरस्कार से सम्मानित मदर टेरेसा कोलकाता में रहती थीं| एक बार एक सामाजिक कार्यकर्ता उनके पास एक “युद्ध विरोधी” रैली में शामिल होने के लिए अनुरोध करने आया| उन्होंने युद्ध विरोधी रैली में शामिल होने से मना कर दिया| उन्होंने कहा – “मैं युद्ध विरोधी रैली में शामिल नहीं हो सकती, परन्तु शान्ति के समर्थन में यदि कोई रैली निकलना तो मुझे जरुर बुलाना|” पहले दोनों शब्द (युद्ध एवं विरोधी) नकारात्मक थे – ये दोनों नकारात्मकता पैदा करता है, ऊर्जा का स्तर घटाता है और नकारात्मक चित्रण करता है, जो जीवन में ठोस स्वरुप लेने लगता है| जबकि “शान्ति के समर्थन“ में दोनों शब्द सकारात्मक हैं, सकारात्मक चित्रण करता है, और ऊर्जा का स्तर भी बढ़ता है| अब आप एक ही भावार्थ के दो विपरीत अर्थ के शब्दों को समझ गए होंगे| कितना अंतर पड़ गया और इसीलिए एक स्थापित हस्ती ने इसमें सावधानी बरतीं| हम भी सावधान हो जाएँ|

बाबा साहेब ने भारत में वह काम किया, जो शताब्दियों से कोई नहीं कर पाया| क्या उन्होंने संघर्ष किया? क्या कभी कोई उदहारण ,है जो लाठी से भी संघर्ष किया गया है और उस संघर्ष में बाबा साहब शामिल हुए है? बिना किसी हथियार या संघर्ष के उन्होंने वह कर दिया, जो कोई बड़े सेना का सेनापति नहीं कर सकता है| बाबा साहेब चाहते थे कि उनका यह कारवां मानवता के लिए अग्रसर होता रहे| उनके असामयिक देहांत होने और उनके अनुयायियों के द्वारा उनके मिशन को भटका दिए जाने से निश्चय ही भारत में मानवता को अभूतपूर्व नुकसान हुआ है|

विक्टर ह्यूगो कहते हैं – “जब एक उपयुक्त विचार के लिए उपयुक्त समय आता है, तो सारी सेनाओं की शक्तियाँ उनके सामने कुछ नहीं होता|” यह विचार की शक्तियों को रेखांकित करता है। इसीलिए किसी चतुर चालाक साजिशकर्ता ने एक महान विचारक के सबसे प्रमुख विचार में ही विरुपण (Distortion) यानि तोड़फोड़ (Break off) कर उसके प्रभाव को घटा दिया है, या निष्प्रभावी (Ineffective) बना दिया है। बाबा साहेब के सबसे प्रमुख विचार के साथ यही साजिश की गई, जिसे नादान अनुयायियों ने सही मान लिया। ये नादान आज भी स्वयं भटक रहे हैं और अपने लोगों को भी भटका रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो वे बाबा साहेब आंबेडकर से भी ज्यादा ज्ञानी है और इसलिए बाबा साहेब के प्रमुख निचोड़ सूत्र में ही संशोधन कर दिया।

आज जब हम एक महान विचारक का प्रमुख सूत्र यानि नारा यानि उनके दर्शन यानि सिद्धांत के निचोड़ को ही बदल दिए हों; तब हम कैसे आगे बढ़ेंगे और उनके कारवाँ को कैसे बढ़ाएंगे? हमें सोचने समझने के लिए ठहरना होगा| हमें समझना होगा| हमें विमर्श करना होगा कि समुचित और सत्य क्या है?

यदि कोई बाबा साहेब के उक्त सूक्त को बदलना चाहता है, तो बदल सकते हैं, संशोधित कर सकते हैं, लेकिन अपने नाम पर ऐसा करे; लेकिन बाबा साहेब के नाम पर नहीं करे, यानि बाबा साहेब का बता कर प्रचारित, प्रसारित एवं प्रचालित कदापि नहीं करे।

आइये, इस अवसर पर एक सम्यक विमर्श शुरू करें| तब ही 140 करोड़ का मानव संसाधन अपने संभाव्य क्षमता का महत्तम उपयोग कर सकेगा और मानवता का महाकल्याण हो सकेगा| इससे राष्ट्र और समाज में सुख, शान्ति एवं समृद्धि स्थापित होगा|
आलेख:-
प्रो.(डाॅ.)विनय पासवान

एम.ए. (द्वय)हिन्दी एंव प्राकृत, पीएच.डी, (द्वय)हिन्दी एंव प्राकृत(लब्ध स्वर्ण पदक)बैचलर ऑफ लाइब्रेरी साइंस,डिप्लोमा इन डेयरी प्रौद्योगिकी,डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन।

   दलित दर्पण फाउन्डेशन 
ग्राम-केशोपुर,पोस्ट-बालुकाराम,जिला-वैशाली,पिन कोड-844113,राज्य-बिहार,(भारत)

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