बाप-दादाओं के अतीत को याद दिलाते हुए एक बहुत ही सुंदर और मनोरम छत्तीसगढ़ी कविता,जरूर पढ़िए ये शानदार कविता शीर्षक – मोर ‘बबा’ के गोठ

मोर ‘बबा’ के गोठ
“”””””””””””””””””””””””””
अस्सी साल म मोर बबा ह
टाय-टाय गोठियाय,
कहना ओकर नी माने ल
तरीत तरीत बंबाय।

बुता म सुरतावत देख के
मोला ताना मारय,
जल्दी बने समझही कहके
रंग-रंग हाना पारय।

नानपन के डिस्टान खोलके
सबके दुःख सुनावय,
चऊर दार नई रहय गरीब घर
खाय बर दुःख पावय।

चूवां ओगरा के पानी पीयय
बोर बोरिंग नी रहय,
छेना लकरी म भात रांधय
आगी के दुख सहय।

घरों-घर रहय भैंस-बैला
खेत म नागर जोतय,
संझा बिनहा दोनों जुवार
गाड़ी घलो फांदय।

पुस तिहार मान के बड़झा
ईटा बनाए बर जाय,
घाम पानी सबो ल सहके
जियत-मरत कमाय।

बेर बुड़य त सबके घर में
कंडील चिमनी बरय,
डोरी लीम मफोली के तेल
सब सकेल के धरय।

लेखक/ कवि,
विजय कुमार कोसले
लेंध्रा छोटे, नाचनपाली
सारंगढ़, छत्तीसगढ़।

Leave a Reply

error: Content is protected !!