आज के आधुनिक परिवेश में बिखरते घर परिवारों की हालात और स्थिति को कविता के माध्यम से सुंदर चित्रण कर कवि विजय कुमार कोसले ने लोगों को किया उनके धर्म और कर्तव्यों के प्रति जागरूक। पढ़िए छत्तीसगढ़ी कविता शीर्षक – घर-घर के कहानी


घर-घर के कहानी

घर-घर म तो देख संगी
माते हे महाभारत,
भाई-भाई ह दुश्मन बनके
करत हे बगावत।

का अनपढ़ का पढ़े-लिखे
  सब होवत हे झगड़ा,

नारी-नारी के बैर बने म
घर में बाढ़े लफड़ा।

  बाप बेटा अउ सास बहू म
       हावय मन मोटाव,
  ककरो कोनो नी माने कहना 
      सबके अड़हा चाव।

 बाप ह कईथे बेटा ल रोज 
     मोर ताक ल मान,
 मंद दारू ल छोड़के तैं ह
    सही ग़लत ल जान।

 गोठ सुने ना बाप के बेटा
    मनमर्जी के करथे,
दारू रोज-रोज पी पीके वो
    दाई ददा संग लड़थे।

बेटी मन के पहुना आय म
    दाई ददा समझाय,
भाई भौजी के घर में कोनो 
    घेरी बेरी नई आय।  

ननंद भौजी के प्रेम मया है
   जब बोझ बन जाथे,
हर राज ल एक दूसर के 
   बढ़ा चढ़ा के बताथे।

डौकी बुध म रेंग के बेटा
  बाप ल ठेंगा दिखाय,
 जगह जगह होय कर्ज़ा के
   दोषी ओला ठहराय।

 झगड़ा होय म रात दिन के 
     सब के मन कव्वाय,
खेती बाड़ी सब बांटा करके
  अलग अलग हो खाय।

 पढ़ें लिखे नौकरिहा बेटा 
   घर घलो नई आय,
दाई ददा के मया भुलाके
   बाहर म जम जाय।

लेखक/कवि,
विजय कुमार कोसले
नाचनपाली, लेंध्रा छोटे
सारंगढ़, छत्तीसगढ़।

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