घर-घर के कहानी
घर-घर म तो देख संगी
माते हे महाभारत,
भाई-भाई ह दुश्मन बनके
करत हे बगावत।
का अनपढ़ का पढ़े-लिखे
सब होवत हे झगड़ा,
नारी-नारी के बैर बने म
घर में बाढ़े लफड़ा।
बाप बेटा अउ सास बहू म
हावय मन मोटाव,
ककरो कोनो नी माने कहना
सबके अड़हा चाव।
बाप ह कईथे बेटा ल रोज
मोर ताक ल मान,
मंद दारू ल छोड़के तैं ह
सही ग़लत ल जान।
गोठ सुने ना बाप के बेटा
मनमर्जी के करथे,
दारू रोज-रोज पी पीके वो
दाई ददा संग लड़थे।
बेटी मन के पहुना आय म
दाई ददा समझाय,
भाई भौजी के घर में कोनो
घेरी बेरी नई आय।
ननंद भौजी के प्रेम मया है
जब बोझ बन जाथे,
हर राज ल एक दूसर के
बढ़ा चढ़ा के बताथे।
डौकी बुध म रेंग के बेटा
बाप ल ठेंगा दिखाय,
जगह जगह होय कर्ज़ा के
दोषी ओला ठहराय।
झगड़ा होय म रात दिन के
सब के मन कव्वाय,
खेती बाड़ी सब बांटा करके
अलग अलग हो खाय।
पढ़ें लिखे नौकरिहा बेटा
घर घलो नई आय,
दाई ददा के मया भुलाके
बाहर म जम जाय।
लेखक/कवि,
विजय कुमार कोसले
नाचनपाली, लेंध्रा छोटे
सारंगढ़, छत्तीसगढ़।