डॉ. गोपाल चतुर्वेदी, वृन्दावन
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार)
“विष्णु पुराण” के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न ने लवण नामक असुर का वध कर “मधुरा” नामक नगर की स्थापना की थी। जो कि कालांतर में मथुरा नाम से प्रख्यात हुआ। इसी मथुरा के डीग दरवाजा के निकट मल्लपुरा क्षेत्र में है कटरा केशव देव। यहां स्थित मथुरा के अत्यंत क्रूर व अत्याचारी राजा कंस के कारागार में आज से लगभग पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के ठीक 12 बजे लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। भगवान श्रीकृष्ण, भगवान विष्णु के साक्षात अवतार थे। उनके अवतार का प्रमुख कारण कंस के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्त कराना था। जैसा कि उन्होंने “श्रीमद्भवतगीता” में स्वयं कहा है-
” जब-जब पृथ्वी पर अन्याय, अत्याचार, पापाचार आदि बुराइयाँ बढ़ जाती हैं, तो उनके नाश के लिए मैं अवतार लेता हूँ तथा धर्म की रक्षा करता हूं।”
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म लेने वाला स्थान उनके जन्म से ही अत्यंत पवित्र व पूज्य माना गया है। यहाँ प्रथम मन्दिर का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ ने ईसा पूर्व 80 में कराया था। कालक्रम में इस मंदिर के ध्वस्त होने के बाद गुप्तकाल के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने सन 400 ई. में दूसरे वृहद मन्दिर का निर्माण करवाया। परन्तु इस मंदिर को भी महमूद गजनवी ने सन 1017 ई. में ध्वस्त कर दिया। ततपश्चात महाराज विजयपाल देव के शासन काल (सन 1150 ई. के आसपास) में जज्ज नामक व्यक्ति ने तीसरे मन्दिर का निर्माण कराया। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर के दर्शन चैतन्य महाप्रभु ने सन 1515 ई. में किये थे। यह मंदिर भी 16वीं शताब्दी में सिकन्दर लोधी द्वारा ध्वस्त कर दिया गया।
सम्राट जहांगीर के शासनकाल में ओरछा के राजा वीरसिंह देव बुंदेला ने चौथी बार एक अन्य भव्य मंदिर का निर्माण कराया,जो कि 250 फुट ऊंचा था। उस समय इसके निर्माण पर 33 लाख रुपये व्यय हुए थे। इस मंदिर के बने स्वर्ण शिखर की चमक 56 किमी दूर स्थित आगरा तक से देखी जा सकती थी। इस मंदिर को भी मुगल शासक औरंगजेब ने सन 1669 ई. में नष्ट कर दिया।
लगातार चार बार श्रीकृष्ण जन्म भूमि मन्दिर के ध्वस्त होने के बाद कई वर्षों तक यह स्थान उपेक्षित पड़ा रहा और धार्मिक जनों को अत्यंत कष्ट व निराशा देता रहा। सन 1803 में जब मथुरा ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया तो ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सन 1815 में कटरा केशव देव को नीलाम कर दिया। काशी के राजा पटनीमल ने इस स्थान को नीलामी में खरीदा। उनकी यह उत्कट अभिलाषा थी कि वह भगवान केशवदेव के मंदिर को पुनः बनवाएं परन्तु यह इच्छा उनके जीवन काल में पूर्ण नही हो सकी। महामना मदन मोहन मालवीय ने 6 फरवरी सन 1944 को यह स्थान सेठ जुगलकिशोर बिड़ला के आर्थिक सहयोग से राजा पटनीमल के उत्तराधिकारी रायकृष्ण दास से खरीद लिया। परन्तु वह भी अपने जीवन काल में यहां मन्दिर निर्माण नही करवा सके। मालवीय जी के द्वारा अधूरे छोड़े गए कार्य को पूरा करने के लिए सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने 21 फरवरी सन 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की। साथ ही यहां मथुरा के नागरिकों के श्रमदान से निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पुनरुद्धार हेतु जाने वाली खुदाई में प्राप्त अवशेषों से उस पवित्र स्थल का भी पता चला जहां पर कि कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी रहे थे और जहां भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। अब इस स्थान को सुरक्षित कर दिया गया है। जिससे भक्त-श्रद्धालु इसके दर्शन कर सकते हैं।
“भगवत भवन” श्रीकृष्ण जन्मभूमि का प्रमुख आकर्षण है। उत्तुंग शिखर वाले इस भवन का 11 फरवरी सन 1956 को शिलान्यास हुआ था। 17 वर्षों में हुए इसके निर्माण पर 12 करोड़ रुपये की धनराशि व्यय हुई है। यहां पांच मन्दिर हैं, जिनमें राधा-कृष्ण का मंदिर मुख्य है। इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण एवं राधा रानी की छ:-छ: फुट की अत्यंत व आकर्षक मानवाकार प्रतिमा स्थापित हैं। राधा-कृष्ण के इस मंदिर के दायीं ओर बलराम,सुभद्रा व जगन्नाथ के दर्शन हैं। बायीं ओर सीताराम व लक्ष्मण का मंदिर है। राम मंदिर के समीप है केशवेश्वर मन्दिर,जिसमें पारद लिंग प्रतिष्ठित है। जगन्नाथ मंदिर के निकट स्थित मंदिर में माँ दुर्गा की अष्टभुजी मूर्ति के दर्शन हैं। यहां के प्रमुख आकर्षण त्रिनेत्र नारियल व नौ पत्ती वाला बेलपत्र आदि है। “भागवत भवन” की समूची छत अत्यंत मनोहारी व चित्ताकर्षक भित्ति चित्रकारी से सुसज्जित है। इस भवन के परिक्रमा मार्ग पर सम्पूर्ण”श्रीमद्भागवत” को ताम्र पत्र पर अंकित किया गया है।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि के अन्य आकर्षक यहां के श्रीकृष्ण चबूतरे पर लगे द्वादश शिला पट्टों पर प्राकृतिक रूप से उभरी भगवान श्रीकृष्ण की छवियां, विशाल सत्संग भवन, भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं की यंत्र चालित झांकियां, भव्य पार्क व फुव्वारे, संस्कृत विद्यालय व छात्रावास, गोपालन केंद्र, व्यायाम शाला, धर्मशाला, आयुर्वेद औषधालय आदि हैं।
इसके अलावा यहां से तमाम सत्साहित्य भी प्रकाशित होता है। यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की मध्य-रात्रि को भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा का पंचामृत से वैदिक मंत्रोच्चार के मध्य अभिषेक होता है। जिसके दर्शन करने हेतु देश-विदेश के असंख्य भक्त-श्रद्धालु मथुरा आते हैं।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि के सटी हुई कुदसिया बेगम की मस्जिद है, जो कि ईदगाह के नाम से जानी जाती है। इसे मुगल शासक औरंगजेब के द्वारा श्रीकृष्ण जन्मभूमि के चौथे मन्दिर को ध्वस्त करने के बाद उससे प्राप्त मलवे से मन्दिर के ही एक भाग में बनवाया गया था। साथ ही मन्दिर की सभी मूर्तियों से हीरे-जवाहरात आदि निकालकर उन्हें मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे गढ़वा दिया था ताकि उन पर यहां आने-जाने वाले व्यक्तियों के पांव पड़ें। तब से श्रीकृष्ण जन्म भूमि व ईदगाह विवादों के घेरे में बनी हुई है। जब कि पुरातत्वविदों ने प्राचीन काल में हुई इस स्थान की खुदाई में प्राप्त अवशेषों व शिलालेखों आदि के आधार पर यह प्रमाणित किया हुआ है कि ईदगाह वाला स्थान भी श्रीकृष्ण जन्मभूमि का ही है। जबकि मुस्लिमों समुदाय ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि वाले स्थान पर अपना स्वामित्व बताते हुए कई बार न्यायालय में मुकदमे दायर किये हैं। परंतु वह हर बार पराजित हुए हैं। खेद है कि यहां अभी भी पारम्परिक कटुता के चलते शासन ने इस स्थान के चप्पे-चप्पे पर स्थायी सुरक्षा व्यवस्था का प्रबंध किया हुआ है।
हमारी प्रभु से यह कामना है कि वह मुस्लिम समुदाय को यह सद्बुद्धि दे कि वह पुराने विवादों व मतभेदों को समाप्त कर प्रेम व सौहार्द्र से रहते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम करें।
साथ ही हम शासन से भी यह मांग करते हैं, कि वो अयोध्या – काशी – उज्जैन की तर्ज पर मथुरा की श्रीकृष्ण जन्मभूमि का भी पुनरोद्धार करे।