हमारे इस जीवन के सार को बोध कराते हुए पढ़िए कवि विजय कुमार कोसले की एक नायाब और बेहतरीन रचना कविता शीर्षक “जीवन”


जीवन

जन्म-मृत्यु के बीच सफ़र ही
जीवन एक कहलाती हैं,
हर एक इंसा तो इस जगत में
मां की कोख से आती हैं।

खेल खिलौने अपनापन से
बीते सबके बचपन हैं,
हंसना रोना मस्ती करना
जाने न कोई बंधन हैं।

जवां होकर के हर एक इंसा
अपना घर बसाया है,
घर अपना न टूटे कहके
सारी उमर कमाया है।

वृद्धावस्था जब जब आतें
मन हार थक जाते हैं,
लाठी लें एक चलें हाथ में
उम्मीदें तरसातें हैं।

कोई महलों में कोई झोपड़ में
रातें यहां बिताते हैं,
कोई अपनी सुज बूझ से
सब पे राज चलाते हैं।

कोई अमीर हैं कोई गरीब हैं
कोई यहां फकीर है,
धीरे धीरे सब बन जातें
चाहे जो तकदीर है।

कोई न जाने इस जीवन के
डोर किसके हाथ है,
समय के हाथ कठपुतली बन
सब नाचते बस नाच है।

इस जीवन की कसमकश से
लोग सभी हैरान हैं,
न जाने कब क्या हो जाये
इससे सब अज्ञान हैं।

अपने अपने मौत से ही
हर इंसा अंजान है,
जिस दिन सांसे रुक जायेंगे
छूट जाती यह प्राण है।

लेखक/ कवि,
विजय कुमार कोसले
सारंगढ़, छत्तीसगढ़।

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